अँधेरा है देखा पर ऐसा नहीं
ऐसा सख़्त, ऐसा सर्द, ऐसा दर्द
ख़त्म हुई कहनी, लौ बुझ गयी
ले अंधेरे, मैं आख़िर हो गयी सर्द
हम दोनों का ये साथ क्यूँ टूट गया
हाथ से ये हाथ ये है छूटा क्यूँ?
ये ग़म मेरा दम भी घुट रहा है
पर दिल मेरा कहता है सुन ले तू
खो गयी है डगर
चलते जा तू मगर
बस उठा सही एक क़दम
दिन कहाँ गया? बस रात है
रात क्या? दिन है क्या? क्या कहूँ?
तू ही तो था किनारा अब कौन है
तेरे बिना बता मैं क्या करूँ
कटे कैसे सफ़र?
संग ना जो हमसफ़र
है उठाना सही एक क़दम
तू क़दम से ज़रा
एक क़दम तो मिला
तू उठा, सही एक क़दम
डगमगाए रास्ता
गिर न जाना तू कहीं
बाँध के बस हैसला
उठा क़दम, बढ़ा क़दम
बस अब रुकना नहीं
चलते जा तू वहाँ
रोशनी दिखे जहाँ
और उठा सही एक क़दम
मिल भी जाए मंज़िल अगर
क्या मिल गया जो खो गया
वो मेरा आसमां मेरा घर
फिर भी चलते जा आगे बढ़ते जा
और तू उठा क़दम एक सही