लिखा है जो, क्यों मानूँ मैं सब वो?
सदियों से जो ना बदला
क्यों ना ज़ुबान मैं खोलूँ? बताओ!
मेरा तो हक़ है यह पहला
सच्चाई कहनी है इस पल
सौ क़समें हैं खाई
चाहे अब मैं सदमें पाऊँ
होगी रिहाई!
तूफ़ान की मैं आहट!
मैं तुमको ना दूँ राहत
खोल आई हूँ, तोड़ आई हूँ सब पहरे ! (पहरे!)
ना सहूँ मैं!
ना ही चुप रहूँगी
जो है वो सब कहूँगी
खोल आई हूँ, तोड़ आई हूँ सब पहरे
मुझको रखना ना सहेज
पा लूँ इनसे तो मैं रिहाई
और अब लेके बिखरे पल लिखूँ मैं बस तेरी रुसवाई
है यह आवाज़ दिल से आई - "चुप ना रहना!"
और यूँ तेरे ज़ुल्मों को मैंने ना सहना
खोल आई हूँ, तोड़ आई हूँ सब पहरे! (पहरे!)
नाकामी होगी घोंटो जो तुम दम भी
ना हूँ अब किसी से कम भी
अरमानों को रोके ना पहरे
खोल आई हूँ, तोड़ आई हूँ सब पहरे! (पहरे!)