मत जा, मत जा, मत जा, मेरे बचपन नादां
बचपन ने कहा मुझसे, कुछ रोज़ के हम मेहमां
जब से ये रुत मतवाली आई है मेरे आँगन
कहते है के जैसे नैना रूठा रहता है मन
अपने रूठे मनको मैं लेकर जाऊँ कहा
कल रात उचट गयी निंदिया और भोर तलक मैं जागी
ये कैसी मीठी अग्नि जो मेरे तन में लगी
कर दे ना मुझे पागल मेरे नटखट अरमां
क्यू लाज लगी है सबसे, क्यू सबसे छुपती फिरू
कोई भी नही है ऐसा, हाल अपना जिससे कहु
नादानी मेरी देखो सबको समझू नादां